1930 का दशक बिहार में सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन के रूप में जाना जाता है। यही वह दौर है जब पिछड़ी जातियों में सामाजिक अस्मिता के प्रश्न उठ रहे थे। तत्कालीन सामाजिक संरचना में समता के सवाल पर सामंतवादी मानसिकता को चुनौती देने की मानसिकता से लैस होकर पिछड़ी जातियों और दलितों का संगठन त्रिवेणी संघ का प्रतिरोध जारी था। साल 1934 में त्रिवेणी संघ की पहली बैठक एक ही क्षेत्र रोहतास जिला के करगहर विधानसभा के गर्भ गांव में सरदार जगदेव सिंह यादव के नेतृत्व में हुआ था। दस्तावेजों के मुताबिक 1 अगस्त, 1938 को करगहर प्रखंड के देबखैरा में एक मध्यम किसान परिवार में दुर्गा प्रसाद सिंह के पुत्र रामधनी सिंह का जन्म हुआ था। किन्तु तब के जमाने में अमूमन ऐसा होता था कि पिछड़ी जातियों और दलितों के घरों में जन्मतिथि नहीं लिखी जाती थी, रामधनी सिंह के वास्तविक जन्म तिथि के सवाल पर उनके पुत्र उदय प्रताप सिंह कहते हैं कि तब का वर्ष अकाल पड़ा था, जिसके आधार पर नामांकन में 1 जनवरी 1938 उनकी जन्मतिथि मान ली गई।
रामधनी सिंह की प्रारंभिक शिक्षा गांव के विद्यालय से हुई और इलाहाबाद बोर्ड से इंटर तक शिक्षा तक पूरी की। तदोपरांत साल 1956 में टीचर ट्रेनिंग कॉलेज पिटारा से टीचर ट्रेनिंग की डिग्री हासिल की। पढ़ाई के दौरान ही वे सामाजिक तानाबाना को समझने लगे। तब बिहार में चुनावी राजनीति में पराजय के बावजूद भी करगहर में त्रिवेणी संघ का प्रभाव था। त्रिवेणी संघ के संस्थापकों में एक सरदार जगदेव सिंह यादव पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद भी इतने सक्षम थे कि तब के अंग्रेज अफसरों के गांव में आने पर जन संवाद के लिए वे अनुवादक का काम कर देते थे। युवावस्था में रामधनी सिंह सरदार जगदेव सिंह और शिवपूजन शास्त्री जैसे सामाजिक चेतना वाले नेताओं के सानिध्य में रहने लगे। तब शाहाबाद में सामाजिक विषमता के विरुद्ध संघर्ष का दौर तेज था, जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। अपने गांव के जमींदारों के अत्याचार से बालक रामधनी भी कम पीड़ित नहीं रहे। उन्होंने उनके खिलाफ अपने गांव से ही संघर्ष किया जिसके कारण उन्हें गांव से 2 किलोमीटर दूर उच्च विद्यालय डिभिया में शरण लेनी पड़ी। वहीं वे जमींदारों के खिलाफ रणनीति तय करते थे और बच्चों को पढ़ाते भी थे। साल 1958 में उन्होंने प्राथमिक विद्यालय शिवन में प्रधानाध्यापक के रूप में योगदान दिया। अध्यापक होने के साथ-साथ वे शिक्षक संघ के संगठन में भी सक्रिय थे। लेकिन त्रिवेणी संघ की वैचारिकी से ओतप्रोत रामधनी सिंह ने रोहतास में प्रभुत्वशाली जातियों का सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व कब तक बर्दाश्त करते, लिहाजा लगभग 20 वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के बाद साल 1977 में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। किंतु राजनीति में आने के बाद भी शिक्षा जगत से जुड़े लोग आजीवन इन्हें ‘गुरुजी’ कह कर ही पुकारते थे।
अध्यापक की नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद रामधनी सिंह का चुनावी राजनीतिक का सफर शुरू हुआ। किंतु तत्कालीन कांग्रेस में पिछड़े वर्ग के लिए राह अत्यंत ही मुश्किल थी। आजादी के बाद के कई दशक तक शाहाबाद में कांग्रेस नेता और सहकारिता क्षेत्र में बड़े नाम तपेश्वर सिंह का प्रभुत्व स्थापित था। ऐसे में पिछड़ी जातियों के लिए राजनीति में जगह बनाना रोहतास में आसान नहीं था। रामधनी सिंह ने स्थिति को भांपते हुए रास्ता बदला। साल 1978 में दिनारा विधानसभा से निर्दलीय चुनाव में उत्तरे जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा। उसी दौरान वे समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर के नजदीक आये। फिर लोक दल से 1980 और 1985 के विधानसभा चुनाव में दिनारा में प्रत्याशी बने, जिसमें उन्हें लगातार हार का सामना करना पड़ा। किंतु जो मिट्टी के लाल होते हैं वे हार कहां से मानेंगे भला। राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के कारण चौधरी चरण सिंह के विश्वासपात्र बिहारी नेताओं में से एक बन गए थे। वे कुल 5 बार बिहार विधानसभा के सदस्य रहे और एक बार बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे। बिहार विधान परिषद में वे आवास समिति और प्राक्कलन समिति के सभापति भी रहे। इसी तरह विधानसभा में भी प्राक्कलन समिति, लोक लेखा समिति और पुस्तकालय समिति के भी सभापति रहे। जनता दल के टिकट पर 1990 में वे दिनारा से पहली बार विधायक चुने गए। यहां से उनकी संसदीय राजनीति की शुरुआत हुई तो फिर साल 1995, 2000, फरवरी 2005 और नवम्बर 2009 में बिहार पहले विधायक बने। साल 2008 में वे बिहार विधान परिषद के लिए चुने गए। जीतन राम मांझी और नीतीश कुमार के कैबिनेट में उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। स्वास्थ्य मंत्री के रूप में बिहार के अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार के लिए काफी काम किया गया। किंतु 2015 के चुनाव में उम्र सीमा का हवाला देते हुए जदयू से टिकट कट गया तो वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। वह कभी भी सांप्रदायिक ताकतों की पार्टी में नहीं गए। आजादी के बाद प्रभुत्वशाली वर्ग के खिलाफ पिछड़ी जातियों, दलितों को प्रतिरोध की कीमत कई लोगों को जान देकर चुकानी पड़ी थी। रामधनी सिंह भी इस समता और सत्ता के संघर्ष में बाल-बाल बचे थे। उनके करीबी रहे विधानसभा के सेवानिवृत्त अधिकारी रामेश्वर प्रसाद चौधरी बताते हैं कि रामधनी सिंह को इसलिए भी याद किया जाएगा कि कभी राजनीतिक संघर्ष के दिनों में जब वे प्रभुत्वशाली शक्तियों को चुनौती दे रहे थे तब उन पर सामंती शक्तियों ने तलवार से हमला किया। उनके कपड़े फट गए। तब नटवार के राइस मिल में शरण लेकर उन्हें अपनी जान बचानी पड़ी। उन्होंने अपने संघर्ष से रोहतास की राजनीतिक जमीन को समतल कर दिया था। उनका कोई गॉडफादर नहीं था। सामान्य किसान परिवार से निकल कर रोहतास में अगड़ी जातियों के वर्चस्व को तोड़ कर समाजवादी राजनीति का परचम बुलंद करने में कामयाब रहे। वे त्रिवेणी संघ के सच्चे वैचारिक वारिस थे। एक जननेता एवं शिक्षक होने के साथ ही रामधनी बाबू कई शैक्षणिक संस्थानों के संस्थापक सदस्य भी रहे। रोहतास में उनकी कोशिशों से कई तरह के स्कूल, कॉलेज खोले गए। शेरशाह कॉलेज सासाराम और आर.एम. देवी सी. डी. राय कॉलेज नौवा कोचस की स्थापना करवाने में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। इसके अलावा रोहतास में उच्च विद्यालय अख्तियारपुर, कबूतरा उच्च विद्यालय कपसिया, रामनरेश चौधरी उच्च विद्यालय डिमिया, सच्चिदानंद उच्च विद्यालय, उच्च विद्यालय चितांव, एस.एन. कॉलेज, शाहमल खैरा देव आदि कई विद्यालयों की स्थापना में उनकी सक्रिय भूमिका रही। उनके दामाद विनोद प्रभाकर बतलाते हैं कि ‘झूठ से उन्हें भारी नफरत थी। पान, गुटका खाकर कोई कार्यकर्ता उनके पास नहीं जा सकता था। कार्यकर्ता का वे अपने परिवार से भी ज्यादा ख्याल रखते थे।’ उन्होंने अपने पीछे 3-3 पुत्र-पुत्रियों का भरा-पूरा परिवार छोड़ा है। गत 17 अक्टूबर 2023 को पटना के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। वृद्धावस्था के कारण कई महीनों से वे कई तरह की बीमारियों की चपेट में थे। यह यही है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने जो खालीपन पैदा किया है उसकी स्मृति को मिटाना संभव नहीं है। वे उस दौर से गिने चुने नेताओं में से एक थे जिन्होंने संघर्ष की कीमत चुका कर वर्तमान पीढ़ी के लिए राहें आसान की थी।