संविधान दिवस पर कुछ चिंताएं

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यह आजादी का अमृत काल चल रहा है, और विडंबना देखिए कि आज़ादी के अमृत काल में ही बोलने की आज़ादी पर सबसे ज्यादा संकट है। यह संकट उन लोगों पर सबसे ज्यादा है, जो दलितों, वंचितों, गरीबों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के दमन और उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हैं। यहां तक कि दलितों और अल्पसंख्यकों की हत्याओं की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार भी सुरक्षित नहीं हैं। सोचना पड़ता है कि क्या देश संविधान से चल रहा है?

 

विपक्ष की भूमिका निभाने वाले, नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन पर सरकार से सवाल पूछने वाले और सरकार की संविधान-विरोधी नीतियों की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार आज सुरक्षित नहीं हैं। उन पर हमले हो रहे हैं, उनके घरों पर छापे डाले जा रहे हैं और उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेजा जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार हमें संविधान देता है, यह उसका हनन है। अभी कुछी दिन की पहले की बात है, गोरखपुर में भूमिहीन दलित किसानों के एक सम्मलेन में कुछ दलित नेताओं को जमीन की मांग करना इतना बड़ा अपराध हो गया कि आयोजक समेत सारे वक्ता गिरफ्तार कर लिए गए। दो हफ्ते जेल में रहने के बाद उनकी बेल हुई। इनमें एक पूर्व आई.पी.एस अधिकारी एस.आर. दारापुरी भी थे।

 

इस अमृत काल में संविधान को बदलने की भी आवाजें आ रही हैं। ये वे लोग हैं, जो जब भी पॉवर में आते हैं, तो संविधान बदलने की बात करते हैं। आपको अच्छी तरह याद होगा, 1993 में कल्याण सिंह का वो बयान जो उन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर कहा था कि मुझे ढांचे के टूटने का कोई पछतावा नहीं है। हम केन्द्र में आएंगे तो संविधान भी बदलेंगे। वे 1998 में केन्द्र में पावर में आये, और उन्होंने संविधान की समीक्षा के लिए समिति बनाई। जब 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान पास हुआ, तो यह आर.एस.एस ही था, जिसने उसका देशव्यापी विरोध किया था, आंबेडकर का पुतला जलाया था, और उसके मुखपत्र ‘पांचजन्य’ में संविधान के विरोध में जो सम्पादकीय लिखा गया था, उसमें उसे औपनिवेशिक संविधान बताया गया था, और कहा गया था कि इसमें भारतीय जैसा कुछ भी नहीं है। उन्होंने संविधान-निर्माताओं पर मनुस्मृति की भी उपेक्षा करने का आरोप लगाया था। मुझे इस वक्त उस ईमानदार जस्टिस का नाम याद नहीं आ रहा है, जिसे 1998 में अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार द्वारा संविधान समीक्षा समिति का अध्यक्ष बनाने की पेशकश की गई थी, पर मैं उस महान जस्टिस को सैल्यूट करता हूँ, जिसने सरकार के प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा दिया था, क्योंकि समिति का एजेंडा धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकारों को समाप्त करने का था। उसके बाद उस समिति के चेयरमैन एम. एन. वेंकटचलैया बनाए गए थे। हालांकि उस समिति की रिपोर्ट लागू नहीं हो सकी थी, पर संविधान बदलने का उनका इरादा नहीं बदला है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के 25 नवम्बर 2023 के अंक में आर. एस.एस के इंडिया फाउन्डेशन के अध्यक्ष राम माधव का लेख A Constitution for all seasons छपा है। उसमें यह लिखने के बावजूद कि संविधान ने पिछले सत्तर सालों से देश की अच्छी सेवा की है, और यह तभी फेल हुआ है, जब नेता फेल हुए हैं, उन्होंने संविधान को बदले जाने की वकालत की है। उन्होंने फ्रांस का हवाला दिया, जहां एक दर्जन से भी ज्यादा बार संविधान बदला गया। उन्होंने नेपाल का जिक्र किया, चिली का जिक्र किया, जहाँ संविधान बदले गए। उन्होंने वर्तमान संविधान को औपनिवेशिक संविधान बताते हुए कहा कि इसमें अगर खराबियां हैं, तो उनके रहते यह देश की सहायता नहीं कर सकेगा। लेकिन वे खराबियां क्या हैं, उनका जिक्र लेख में नहीं है।

 

उन खराबियों का जिक्र पिछले दिनों प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने अपने लेख “There is a case for the people to embrace a new constitution” में किया है, जो एक आर्थिक पत्रिका में छपा है। वह भी “मौजूदा संविधान को औपनिवेशिक विरासत करार देते हैं, और उन खराबियों को भी गिनाते हैं, जो संविधान की प्रस्तावना में हैं, जैसे समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतान्त्रिक, न्याय, स्वतंत्रता, और समानता के सिद्धांत। ये सिद्धांत उन्हें क्यों बुरे लगते हैं? इसका कारण तब समझ में आता है, जब हिंदुओं के साधु-संत और शंकराचार्य तक संविधान बदलने का राग अलापने लगते हैं। ये संत साफ-साफ सरकार से अपील करते हैं, संविधान बदलो, और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाओ। ये संत ऐसा खुद बोलते हैं या इनसे ऐसा बुलवाया जाता है, यहां यह विचार का विषय नहीं है, बल्कि यह है कि इससे संविधान बदलने के पीछे की मंशा साफ हो जाती है। जो बात आर.एस.एस और भाजपा के लोग खुद नहीं कहते, उसे उनके साधु-संत खुलकर कह देते हैं, या उनसे कहलवाया जाता है। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करना, उसी तरह देशद्रोह है, जिस तरह खालिस्तान की बात करना। पर गौरतलब यह है खालिस्तान की बात करने वालों पर कार्यवाही होती है, पर हिंदू राष्ट्र की बात करने वालों पर कोई कार्यवाही नहीं होती। इससे संविधान बदलने की उनकी मंशा और भी साफ हो जाती है। संविधान में अब तक एक सौ छह संशोधन हो चुके हैं। लेकिन संविधान में संशोधन करना और संविधान को बदलना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। आर.एस.एस और भाजपा के लोग संविधान को बदलने की बात करते हैं। इन्हें सबसे ज्यादा परेशानी समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और मौलिक अधिकारों से है। इसलिए इस सरकार ने अपनी कार्य-शैली में इन तीनों चीजों को खत्म कर दिया है। संविधान कहता है कि स्टेट का कोई धर्म नहीं होता है, पर अब अघोषित रूप से हिंदुत्व राज्य का धर्म हो गया है। कांवड़ियों पर हेलिकोप्टर से फूल बरसाये जाते हैं, अयोध्या में दीवाली पर करोड़ों रुपए सरकारी खजाने से निकालकर खर्च किये जाते हैं, साधुओं को पेंशन दी जा रही है, बाबरी मस्जिद की तर्ज पर काशी में ज्ञानवापी और मथुरा में ईदगाह मस्जिद को तोड़ने की पटकथा लिखी जा रही है, जिसे आर.एस.एस, सरकार और अदालतें मिलकर लिख रहे हैं। कानून कहता है कि धार्मिक स्थलों की स्थिति 1947 से पूर्व की बहाल रखी जाएगी, पर हो वही रहा है, जो आर.एस.एस और भाजपा चाहते हैं। हमारे संविधान में देश की अर्थ-व्यवस्था का कोई ढांचा निर्धारित नहीं किया गया है। इसका भी कारण है। डा. आंबेडकर समाजवादी अर्थव्यवस्था चाहते थे, पर संविधान सभा के अन्य सदस्य संविधान में किसी विचारधारा को कायम करने के पक्ष में नहीं थे। इसलिए देश की अर्थव्यवस्था कैसी हो, पूंजीवादी हो, समाजवादी या मिलीजुली हो, इसे सत्तारूढ़ पार्टियों के विवेक पर छोड़ दिया गया। इसी को ध्यान में रखकर डा. अंबेडकर ने संविधान सभा में चेतावनी दी थी कि 26 जनवरी 1950 से भारत के लोग दो परस्पर विरोधी स्थितियों में प्रवेश करेंगे। वे राजनीतिक क्षेत्र में तो समान होंगे, पर सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में समान नहीं होंगे। यह विरोधाभास अगर जल्दी खत्म नहीं किया गया, तो गैर-बराबरी से पीड़ित लोग इस लोकतंत्र के खिलाफ बगावत कर सकते हैं। लेकिन शासक वर्ग जानते हैं कि बगावत को कैसे रोका जाता है। डा. अंबेडकर की भविष्यवाणी बेकार गई। सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में गैर-बराबरी बनी हुई है, और उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले या तो मार दिए गए, या जेल ने सड़ा दिए गए। हालांकि 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ा, पर वह वर्तमान सरकार को पसंद नहीं है। समाजवाद शब्द जुड़ने से भूमि, उद्योग और अन्य संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की उम्मीद जगी थी, पर निजीकरण, उदारीकरण और विदेशी पूंजी निवेश ने सारी आशाओं पर पानी फेर दिया।

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