जाति गणना और उससे उपजे कार्यभार

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सरकार ने अंततः बिहार जाति गणना के सामाजिक, आर्थिक आंकड़े विधानसभा में जारी कर दिये। जारी ही नहीं किया, इस गणना का जो उद्देश्य है, उस दिशा में भी ठोस पहल कर दी है। कुल मिलाकर बिहार में आरक्षण का कोटा अब 75 प्रतिशत हो गया है। इसमें 20 फीसदी दलित, 2 फीसदी आदिवासी, 18 फीसदी पिछड़े वर्ग और और 25 फीसदी कोटा अति पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों की रिक्तियों में आरक्षित कर दिया गया है। 10 फीसदी आरक्षण ई.डब्लू. एस के तहत सवर्ण वर्गों के लिए पहले से आरक्षित था। सरकार के इस निर्णय पर बिहार के राज्यपाल राजेन्द्र विश्वनाथ आर्लेकर की भी मुहर लग चुकी है। सरकार की यह बहुत ही ठोस और मजबूत पहल है जिसके दूरगामी प्रभाव हमारी राजनीति और समाज में कई रूपों में परिलक्षित होंगे। स्वभाविक है सवर्ण वर्चस्व आधारित मीडिया अपने पुराने स्वभाव के मुताबिक अब भी इसे देश तोड़क कदम के बतौर ही स्थापित करने पर आमादा है। और जैसाकि अपेक्षित था कि इस फैसले को जातिवादी तत्वों ने पटना हाई कोर्ट में चुनौती दी है। हमारे नेता तेजस्वी यादव ने सही ही कहा है कि इस चुनौती के पीछे भाजपा का हाथ है।

जाति गणना के बाद भी मीडिया का यह सवर्ण राग थमा नही है। वह वास्तविक आंकड़े को गौण कर रही है और गौण आंकड़ों को संदभों से काटते हुए पेश कर रही है। इस संदर्भ में वह लगातार न सिर्फ सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है अपितु वह दलितों-पिछड़ों और व्यापक मास को भी उनके खिलाफ बरगला रही है। मीडिया सवर्ण जातियों में गरीबी को तो दिखला रही है, लेकिन अमीरी का प्रतिशत भी उसी वर्ग में ज्यादा है, इस बात को छिपा ले रही है। सरकारी नौकरी में अपनी संख्या से कई गुना अधिक सवर्ण भागीदारी के सवाल उनके लिए खबर नहीं बनती, क्योंकि उसमें उनके जातीय हित आड़े आते रहे हैं। जाति गणना की यह रिपोर्ट बतलाती है कि साढ़े 10 प्रतिशत सवर्ण हिन्दू जातियां 29 प्रतिशत सरकारी नौकरियों में हैं। मुसलमानों में सवर्णों की यह स्थिति इसके ठीक उलट है। पठान, शेख की नौकरियों में भागीदारी उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम है। करीब 5 फीसदी सवर्ण मुसलमान महज 2 फीसदी सरकारी नौकरियों में हैं। 36 प्रतिशत आबादी वाली अति पिछड़ी जातियां सरकारी नौकरी में महज 23 प्रतिशत हैं। दलित जाति समूह की यह हिस्सेदारी 14 प्रतिशत और आदिवासी वर्ग समूह की 1.47 प्रतिशत है। इससे यह सहज ही समझा जा सकता है कि आरक्षण में किस कदर बैकलॉग रहाहै और अति पिछड़ों के हिस्से की नौकरियां किधर जा रही हैं।

मुख्यधारा की मीडिया, एकेडमिया अब तक यह प्रचारित करती रही थी कि ओबीसी की कुछ खास जातियां ही सारी नौकरियां हड़पती
रही हैं। जाति गणना ने उनके इस अतिरंजित नैरेटिव को ध्वस्त करके रख दिया है। यह गणना बतलाती है कि इनके हक दरअसल ये सवर्ण
जातियां हड़पती रही हैं। सच तो यह है कि 27.30 प्रतिशत की आबादी वाले पिछड़े वर्ग के लोग 30 प्रतिशत सरकारी नौकरी में हैं। इनमें कोइरी, कुर्मी की हिस्सेदारी उनकी संख्या से थोड़ी बढ़ी हुई है और जिस यादव जाति के बारे में यह कहा जाता रहा था कि आरक्षण का सारा लाभ वही ले रही है, सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी उनकी आबादी 14 फीसदी के अनुरूप है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जाति के संदर्भ में पैदा की गई इस तरह की कई भ्रांतियां, इस जाति गणना से दूर होंगी और सरकार सिस्टम में इन अभिवंचित आवादियों की सुनिश्चित भागीदारी की दिशा में कुछ ठोस पहल कर पाएगी। यह जाति गणना बतलाती है कि बिहार में महज 20 लाख 49 हजार सरकारी नौकरियां हैं। ये किस तरह की हैं, इसपर इस सर्वे में स्पष्ट वर्गीकरण या दिशा-निर्देश का सर्वथा अभाव है। यह नौकरियां स्थाई किस्म की हैं या संविदा आधारित यह भी स्पष्ट नहीं है, ग्रेड का भी कोई उल्लेख नहीं है। प्रांतीय, केंद्रीय सेवाओं का भी कोई वर्गीकरण नहीं है। प्राइवेट
आर्गनाइज सेक्टर के आंकड़े भी इसी तरह से सपाट हैं, इनका भी कोई वर्गीकरण नहीं है। अब जबकि यह गणना सम्पन्न हो गई है तो सरकार को चाहिए कि वह इन सभी पक्षों पर आतंरिक सर्वे करके केंद्रीय, प्रांतीय और विभिन्न ग्रेड की नौकरियों, स्थायी और संविदा आधारित, का विस्तारित डाटा तैयार करे, सब ग्रेड का डिटेल दे, ताकि ताकि सही वस्तुस्थिति मालूम हो और अभिवंचित वर्गों के लिए समुचित नीतियां बनाई जा सकें।
जाति गणना से यह भी स्पष्ट होता है कि बिहार में निर्धनता बहुत विकराल रूप में मौजूद है। यह किसी एक जाति नहीं बल्कि सभी जातियों में कायम है। सरकार ने गरीबी का मानक 6 हजार मासिक आय को बनाया गया है। गरीबी का यह मानक राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मानकों पर सही नहीं जान पड़ता। इसके हिसाब से बिहार में 34 प्रतिशत गरीब हैं। आज बिहार में अकुशल मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 388 रुपया है। न्यूनतम मजदूरी के लिहाज से मासिक आय करीब 12000 ठहरती है। योजना आयोग और विश्व बैंक के मानक के लिहाज से इससे नीचे आय समूह को गरीब माना जाना चाहिए। जाति गणना के अनुसार बिहार में 6 से 10 हजार रुपये मासिक आय समूह वाले स्लैब में 29 प्रतिशत लोग हैं। इन दोनों स्लैब को जोड़ दिया जाए तो बिहार में वास्तविक रूप से गरीबों की संख्या करीब 63 प्रतिशत होगी। जाति गणना के आंकड़ों का यदि पहले के अन्य स्रोतों के आंकड़ों से तुलना करें तो यह बात सामने आती है कि विभिन्न जातियों के बीच विषमता अपेक्षाकृत कम हुई है लेकिन बिहार में जिस पैमाने पर गरीबी असमानता की खाई गहरी हुई है।

बिहार में पलायन ऐतिहासिक रूप से एक गंभीर समस्या रही है। यह आज भी देशभर में सस्ते श्रम की आपूर्ति का केंद्र बना हुआ है।
जाति गणना के मुताबिक हर साल करीब 53 लाख लोग रोजगार और शिक्षा के लिए बिहार से बाहर अस्थायी रूप से पलायन करते हैं। यहां
रोजगार और शिक्षा के मानक संस्थान नहीं हैं। रोजगार के नये सृजन, शिक्षण संस्थान, उच्च मानक के बनें इसके लिए कोशिश होनी चाहिए।
हम बिहार में रोजगार के अवसर कैसे पैदा करें, इस हेतु बीपी मंडल की जो अनुशंसाएं हैं, उसे ध्यान में रखकर कुछ ठोस निर्णय लिया जाना
चाहिए। हमारा राज्य कृषि प्रधान है। इसमें भूमि के स्वामित्व के आंकड़े दिये जाने चाहिए थे। भूमि स्वामित्व और भूमि उपयोग के पैटर्न में आये बदलावों को निश्चय ही दर्ज किया जाना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि बिहार सरकार इन आंकड़ों को जारी करेगी। एक सवाल
आवासहीनता से जुड़ा है जो बहुत ही जरूरी सवाल है। सर्वे की मानें तो बिहार में 63 हजार परिवार आवासहीन हैं। सरकार उन्हें जमीन देने के बदले में एक लाख रुपये की राशि देने की घोषणा की है जो कहीं से भी उचित नहीं। सरकार के पास जमीन की कमी नहीं है। अभी हाल ही में खबर आई कि सरकार कॉरपोरेट के लिए लैंड बैंक बना रही है। सरकार को आवासहीनता के सवाल पर पुनर्विचार करना चाहिए। कोई भी बासगीत जमीन 1 लाख में संभव है क्या? हमारे पास इसकी नजीर है कि किस तरह लालू प्रसाद जी ने अपने पहले शासन में पटना के प्राइम लोकेशन में दलितों को घर दिया था। सरकार को जातियों के श्रेणी/उपश्रेणी क्रम पर भी पुनर्विचार करना चाहिए।

बिहार ऐतिहासिक रूप से पिछड़ा हुआ रहा है। पलायन कोई नई बात नहीं है। गिरमिटिया के दौर से यहां पलायन जारी है। बिहार के कई प्रख्यात अकादमिकों ने तो इसे भारत का आतंरिक उपनिवेश करार दिया था। सभी जातियों में गरीबी और अशिक्षा की अलग-अलग व्याप्ति यह दर्शाती कि बिहार अभी भी कितना पिछड़ा हुआ है। यह सही कि पिछले तीन दशकों में बिहार ने गरीबी और पिछड़ेपन के दुश्चक्र से निकलने के महती प्रयास किये हैं लेकिन यह अभी भी अखिल भारतीय स्तर पर विकास और मानव सूचकांक में सबसे निचले पायदान पर बना हुआ है। जाति गणना के निष्कर्ष और उससे उपजे कार्यभार बिहार के विशेष राज्य के दर्जे की चिरलंबित मांग को फिर से मुखरता से उठाते हैं। बिहार को कोई एकमुश्त पैकेज की नहीं बल्कि सतत मदद की जरूरत है और यह विशेष राज्य का दर्जा ही हो सकता है। इस मुद्दे पर व्यापक राजनीतिक जन गोलबंदी जरूरी है।

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