आरक्षण विस्तार के निहितार्थ

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बिहार सरकार ने नौकरियों में आरक्षण को बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया है। विधानसभा द्वारा पारित कानून के अनुसार अब अनुसूचित जातियों को 20 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 2 प्रतिशत, पिछड़ों को 18 प्रतिशत और अति पिछड़ों को 25 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। इस फैसले को लेकर देश भर में बहस हो रही है। होनी भी चाहिए। प्रश्न पूछे जा रहे हैं कि क्या 65 प्रतिशत आरक्षण बहुत ज्यादा नहीं है? क्या यह संविधान सम्मत है? क्या इसके पीछे राजनीतिक मंशा है? इन सवालों पर सफाई से बातचीत होना जरूरी है क्योंकि जो सवाल आज बिहार के हैं, वह कल पूरे देश में उठ सकते हैं। आरक्षण की मात्रा उचित है, कम है या बहुत ज्यादा, इसका फैसला करने के लिए हमें सबसे पहले दो तथ्य चाहिए। पहला जिस वर्ग के लिए आरक्षण किया जा रहा है उसकी आबादी में अनुपात कितना है? दूसरा आरक्षित वर्ग को आज नौकरी में कितना हिस्सा मिल रहा है?

 

पहले आबादी के आंकड़ों को देखें। बिहार में जातीय जनगणना के अनुसार प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 19.7 प्रतिशत यानी लगभग 20 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.7 प्रतिशत यानी लगभग 2 प्रतिशत है। मतलब यह है कि इन दोनों वर्गों को प्रस्तावित आरक्षण ठीक उतना ही है जितनी उनकी आबादी है। यही कानून सम्मत है। इस जनगणना के अनुसार पिछड़ा वर्गों की आबादी 27.0 प्रतिशत और अति पिछड़ों की आबादी 36.1 प्रतिशत है। यानी इन दोनों वर्गों को आरक्षण बढ़ाने के बावजूद जितना कोटा मिलेगा (पिछड़ों को 18 और अति पिछड़ों को 25 प्रतिशत) वह उनकी आबादी से काफी कम है। प्रदेश में सामान्य वर्ग की आबादी 15.5 प्रतिशत है।

 

नई आरक्षण नीति के तहत उनके लिए 35 प्रतिशत पद खुले रहेंगे। इसलिए अब नौकरियों में आज की स्थिति देखें। बिहार की जनगणना के मुताबिक सवर्ण हिंदुओं का बिहार की जनसंख्या में अनुपात केवल 12 प्रतिशत है, लेकिन सरकारी नौकरियों में उनका हिस्सा 29 प्रतिशत और प्राइवेट सेक्टर की पक्की नौकरी में 39 प्रतिशत है। उनका जनसंख्या के अनुपात में अढ़ाई से 4 गुना हिस्सा है। पिछड़ों का हिस्सा अनुपात के कमोबेश बराबर है। पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 27 प्रतिशत है, सरकारी नौकरी में उनका हिस्सा 30 प्रतिशत तो अन्य प्राइवेट सेक्टर की नौकरी में उनका 25 प्रतिशत हिस्सा है। इनकी तुलना में अति पिछड़े और दलित जातियों की स्थिति काफी कमजोर है। अति पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 36 प्रतिशत हैं, लेकिन सरकारी नौकरी में उनका हिस्सा केवल 23 प्रतिशत और प्राइवेट में 22 प्रतिशत है। वहीं दलित समाज की जनसंख्या 20 प्रतिशत होने के बावजूद सरकारी नौकरी में 14 प्रतिशत और प्राइवेट में मात्र 8 प्रतिशत है। अभी यह परिवार द्वारा दी गई सूचना पर आधारित है। जब यह आंकड़े आधिकारिक रूप से सरकारी और प्राइवेट संस्थानों के लिए लिये जाएंगे तो पिछड़ों, अति पिछड़ों और दलितों की नौकरियों में संख्या और भी कम होने की संभावना है। मतलब यह कि इन वर्गों की हिस्सेदारी बढ़ाने की आवश्यकता है। संवैधानिकता का प्रश्न उतना बड़ा नहीं है जितना बताया जाता है। हमारे संविधान में साफ तौर पर कहा गया है कि किसी पिछड़े वर्ग को न्यायपूर्ण हिस्सा देने के लिए किया गया कोई भी विशेष प्रावधान समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। आरक्षण की नीति इसी कानूनी बुनियाद पर टिकी है। हां, सुप्रीम कोर्ट ने एक जमाने में यह बंदिश जरूर लगाई थी कि सब तरह का आरक्षण कुल मिलाकर 50 प्रतिशत की सीमा से पार नहीं जाना चाहिए। बाकी आधी नौकरियां खुली प्रतिस्पर्धा के माध्यम से तय होनी चाहिएं। इसके बावजूद अनेक राज्यों ने 50 प्रतिशत से अधिक के आरक्षण का प्रावधान किया है। 

 

वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने ई.डब्ल्यू. एस. यानी गरीब वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण कर अपने आप इस सीमा का अतिक्रमण कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर वैधता की मोहर भी लगा दी है। इसलिए यह माना जा सकता है कि 50 प्रतिशत की सीमा अब कोई लक्ष्मण रेखा नहीं बची है। रही बात आरक्षण के पीछे राजनीतिक मंशा

की। ऐसे में शंका खड़ी होती है कि वोट बैंक की राजनीति के सवाल तभी क्यों उठते हैं जब पिछड़ी जातियों को कुछ सुविधाएं देने की बात आती है? बिहार की जातिगत जनगणना के आंकड़ों पर चर्चा क्यों नहीं

होती? बिहार में आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर गहरी जातिगत विषमता पर चिंता क्यों नहीं होती? कहीं इसके पीछे हमारे सवर्ण हिंदू मीडिया और टिप्पणीकारों का जातीय पूर्वाग्रह तो नहीं?

 

भाजपा के सहारे सरकार चला रहे थे तब तक उन्हें अगड़े वोटों का आसरा था। अब वह अपने नये सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिलकर पिछड़ों और अति पिछड़ों में अपना आधार मजबूत करना चाहते हैं। सच यह है कि लोकतंत्र में हर बड़ी नीति राजनीति से प्रभावित होती है। जब नरेंद्र मोदी जी की केंद्र सरकार ने 2018 में आनन-फानन में ई.डब्ल्यू. एस. आरक्षण लागू किया था तब उसके पीछे भी 2019 के में वोट का गणित रहा था आश्चर्य की बात यह है कि जिन लोगों ने उस वक्त मोदी सरकार की नीयत में कोई खोट नहीं पाया था, वे सब अब नीतीश कुमार की सरकार के राजनीतिक निहितार्थ पढ़ने में व्यस्त हैं। सच यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राशन की योजना को अगले 5 साल तक बढ़ाने की घोषणा भी वोट के गणित से संचालित है। लेकिन उस पर भी कोई सवाल नहीं उठाता। ऐसे में शंका खड़ी होती है कि वोट बैंक की राजनीति के सवाल तभी क्यों उठते हैं, जब पिछड़ी जातियों को कुछ सुविधाएं देने की बात आती है? बिहार की जातिगत जनगणना के आंकड़ों पर चर्चा क्यों नहीं होती? बिहार में आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर गहरी जातिगत विषमता पर चिंता क्यों नहीं होती, कहीं इसके पीछे सवर्ण हिन्दू मीडिया और टिप्पणीकारों का जातीय पूर्वाग्रह तो नहीं?

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