दिल्ली, पटना समेत पूरा उत्तर एवं पूर्वी भारत के लोगों को ‘सितम्बर से नवंबर’ एवं ‘अप्रैल-मई’ माह में भयानक वायु प्रदूषण संकट से दो-चार होना पड़ता है इसके अनेक स्थानीय एवं पारिस्थितिक तंत्र कारण होते हैं। लेकिन इसका सीधा दोषारोपण चावल और गेहूं उत्पादक किसानों के मत्थे मढ़ने के षड्यंत्र में देश के कारोबारी समूह, अनियंत्रित शहरीकरण के पक्षकार एवं कथित पर्यावरण बचाओ आंदोलनकारी सामूहिक रूप से शामिल होते हैं। जिनके दबाव में केंद्र एवं राज्य सरकारें भी ऊपर वर्णित दबाव समूहों की हां में हां का सूर मिलाते हुए किसानों पर पराली को सही तरीके से निपटान नहीं करने का आरोप लगाते हुए दंडात्मक कार्रवाई शुरू कर देती है। देश के अन्न उत्पादक किसान सरकारी कार्रवाई से आहत होकर गहरी निराशा में चले जाते हैं। वायु प्रदूषण में पराली निपटान के प्रभाव का आकलन अभी तक वैज्ञानिक तरीके से स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है। अगर संपूर्ण रूप से वायु प्रदूषण के कारकों का अध्ययन किया जाए तो उसमें फैक्ट्रियों एवं पावर प्लांटों से उत्सर्जित होने वाला जहरीला धुआं, जीवाश्म ईंधन वाहनों से निकलने वाला धुआं, रियल स्टेट के निर्माण में होने वाली खुदाई एवं उपयोग में आने वाली सामग्री, वनों की अंधाधुंध कटाई, एवं घरों को ठंडा रखने वाले एयर कंडीशन इसके प्रमुख कारण रहे हैं।
इसके समाधान के लिए हम सभी लोगों को सामूहिक प्रयास करना होगा। इसके लिए जीवाश्म ईंधनों की जगह सौर एवं बैटरी चालित स्वच्छ ऊर्जा का उपयोग, पर्यावरण अनुकूल निर्माण सामग्री एयरकंडीशन का कम उपयोग, निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक परिवहन का ज्यादा-से-ज्यादा उपयोग, शॉपिंग मॉल संस्कृति की जगह ‘मौर्या लोक’ और ‘कनाट पेलेस’ जैसे खुले बाजार की संस्कृति को स्थापित करने की आवश्यकता है जिसमें कम ऊर्जा की खपत की संभावना बनी रहेगी। लेकिन जब हम वास्तविक रूप से सरकारी तंत्र के कामकाज की समीक्षा करते हैं तो ऊपर वर्णित तथ्यों के ठीक उलट किसानों पर वीभत्स दंडात्मक कार्रवाई आंखों के सामने दिखाई देता है। पराली एवं गेहूं के डंठल के जलाने के आरोप में कई तरह के दंडात्मक कार्रवाई सरकार के द्वारा गरीब किसानों पर किया जाता है। जैसे कि सरकारी अनुदान की राशि रोक देना, मंडी पर धान-गेहूं खरीद की गारंटी वापस लेना, यहां तक कि पुलिस स्टेशन में किसानों पर मुकदमा दर्ज कर देने जैसे गंभीर कार्रवाई भी की जा रही है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ फैक्ट्री, बाहन निर्माण एवं एयर कंडीशन चलाने वालों पर कोई भी दंडात्मक कार्रवाई सरकारी तंत्र के द्वारा नहीं किया जाना जंगल कानून के समान है। जहां ताकतवर लोगों का कमजोर लोगों पर शोषण करने वाला नया सिद्धांत परिलक्षित हो रहा है।
जहां बिहार के किसान कम आमदनी एवं अधिक खर्च के संकट से पहले ही ग्रसित हैं वहीं पराली जलाने की आड़ में सरकारी तंत्र के दुरुपयोग की दोहरी मार भी सहते रहे हैं। एक तरफ बिहार सरकार किसानों के फसल को सही समय से कटनी हेतु यंत्रीकरण को प्रोत्साहित करते हुए हार्वेस्टर जैसे मशीनों पर सब्सिडी भी दे रही है वहीं हार्वेस्टर से कटनी के बाद बचे फसल अवशेष (पराली) के पर्यावरण अनुकूल निपटान हेतु यांत्रिकीकरण मद में पर्याप्त संसाधन (सब्सिडी) मुहैया नहीं कराया जा रहा है, जिसके चलते अगले फसल गेहूं की ससमय बुआई सुनिश्चित करने के लिए फसल अवशेष को जलाना पड़ता है। बिहार जैसे राज्य में जहां गेहूं की फसल के विकास एवं पकने की अवधि के बीच अनुकूल मौसम जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा हैं यहां क्रमशः दिन घटता जा रहा है जिसका उत्पादन पर कुप्रभाव पहले से कम उत्पादन का होना देखा जा सकता है। पंजाब के मुकाबले बिहार में गेहूं का उत्पादन आधा के आस-पास होता है। आने वाले समय में यह संकट इस मामले में गहराता जा रहा है कि पिछले एक दशक में मौसम में काफी हद तक बदलाव आ चुका है। कम बारिश का होना, बारिश की अवधि कम होना, तापमान का बढ़ना, कम अवधि का ठंड पड़ना एवं सरकार की उदासीनता और लापरवाही के चलते यह संकट लगातार गहराता जा रहा है। जिसका निदान सामूहिक रूप से नीति निर्माण करने वाले लोग, पर्यावरण विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिक एवं किसान संगठनों के आपसी समन्वय एवं विमर्श के जरिये काफी हद तक संकट से निजात पाया जा सकता है। लेकिन सरकारें हमेशा कठिन रास्ते की जगह आसान रास्ते जैसे कमजोर किसानों को डराने-धमकाने तक अपने को सीमित रखना चाहती है। जिससे संकट कम होने की जगह और गहराता जाएगा। साथ ही ऐसी परिस्थिति में आये अनेकों नये संकट पैदा होने का खतरा भी बढ़ जाएगा। जब किसान खेती करता है तो केवल उत्पादन से अपनी आय (आमदनी) ही नहीं बढ़ाता है बल्कि इसके पीछे वह कई सामाजिक फायदा भी छोड़ता है जैसे कि अगर खेत को परती छोड़ दे तो प्रथम रोजगार सृजन पर बंद हो जाएगा, द्वितीय खाद्य सुरक्षा को संकट में डालता है, तृतीय वातावरण में अन्य गतिविधियों से पैदा कार्बन को न्यूट्रल करता है। क्योंकि जितना ही हरित क्षेत्र होगा उतना ही कार्बन को प्राकृतिक रूप से सोख्ता का काम करेगा। अभी यह बात वैज्ञानिकों एवं नीति निर्माताओं ने अपने विमर्श में जानबूझकर इस विषय को नहीं लाया है कि अगर किसान अन्न उत्पादन में अपनी जमीन पर खेती करता है तो कार्बन न्यूट्रल करने में प्रति हेक्टेयर किसान योगदान करता है। क्योंकि जिस दिन यह गणना किया जाए उस दिन किसानों को कार्बन न्यूट्रल कोष से रकम जारी करना पड़ेगा जिस कोष का निर्माण अंतरराष्ट्रीय समझौतों के जरिये दुनिया के धनी देश कार्बन उत्सर्जन फुट प्रिंट के आकलन के आधार पर दंडात्मक शुल्क से कोष का निर्माण किया गया है। जिस कोष का उपयोग चालाकी से • विकासशील देशों के चतुर कारोबारी आज स्थानीय सरकारों से मिलीभगत करके उस कोष का अधिकतम संसाधान अपने हितों को साधने में कर रहे हैं।
बिहार में पराली प्रबंधन में सरकार की भूमिका की जहां तक बात की जाए तो क्या सरकार किसानों द्वारा उत्पादित
जरूरी खाद्यान्न के उत्पादन लागत की गणना में जिसके आधार पर केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करती है उसमें फसल अवशेष प्रबंधन पर आने वाला अतिरिक्त लागत की गणना कर उसमें जोड़ा गया है, अगर इस सवाल का जवाब ईमानदारी से दिया जाए तब यहां सवाल पैदा होता है कि बिहार जैसे राज्य में मंडी व्यवस्था की अनुपस्थिति में न्यूनतम समर्थन मूल्य जहां कपोल कल्पना है वहां पर पहले से ही किसानों की आमदनी घाटे का सौदा है कि वहां पराली प्रबंधन के नाम पर अतिरिक्त वित्तीय भार लादना कहां तक समीचीन है। अभी तक कोई बाह्य, आंतरिक या दैवीय आपदा का आकलन सरकारों के द्वारा करने की परंपरा या उत्तरदायित्व रहा है जिसके आधार पर नुकसान की गणना कर उसकी भरपाई हेतु राजकोष से अनुदान के रूप में देने का इतिहास रहा है। इस संदर्भ में देखा जाए तो वर्तमान समय में विगत एक दशक से फसल अवशेष प्रबंधन एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में जन्म लिया है जिसका व्यापक अध्ययन के जरिये नफा-नुकसान का आकलन करना होगा। जिसके समाधान के लिए राज्य एवं केंद्र को एक व्यवहार्य समाधान ढूंढना होगा ताकि फसल अवशेष प्रबंधन में आने वाला वित्तीय भार को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ जोड़कर या किसानों को अलग से सब्सिडी के रूप में भुगतान प्रणाली को विकसित करना होगा। जिससे समस्या का स्थायी समाधान ढूंढा जा सके नहीं तो वर्तमान दंडात्मक कार्रवाई नीति से अलग तरह की समस्या पैदा होने की चिंता है कि कहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा संकट में न आ जाए।